महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जून को कृष्ण ने उपदेश दिए थे जब धनुर्धारी अर्जून युद्ध से इंकार कर रहे थे क्योंकी अर्जुन इस दुनियां कि मोह-माया में पड़ने के कारण संदेह में पड़ गए थे कि वो क्या करें और क्या न करें तब भगवान कृष्णा ने अर्जून को कहा की तुम्हे इस समय मोह-माया कि चंगुल से निकालना होगा क्योंकी जो तुम्हारे साथ लड़ाई करने वाले होंगे वे कोई और नही बल्कि तुम्हारे अपने है तथापि तुम इस धर्मयुद्ध में अपने कर्मों से प्रायः दूर नही भाग सकते।
कर्मन्येवाधिकारस्ते मा फलेसू कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणी।।
अर्थात:- मनुष्य के केवल कर्म पर लेकिन निष्क्रियता पर कोई अधिकार नहीं है। आसक्ति, अहंकार, या आलस्य के कारण कर्म का त्याग करने का सहारा लेते है तो हम कर्तव्य का अवहेलना कर रहे होंगे , इसलिए पाप कर रहे है। इसलिए श्री कृष्णा द्वारा अर्जून को आसक्ति द्वारा निष्क्रियता की चेतावनी देते है और उसे अहसास कराते है कि कर्मो पर उसका अधिकार/नियंत्रण है किन्तु परिणाम पर नही।
जैसे जले हुए बीज कभी अंकुरित नही होती है उसी प्रकार जन्म-मरण के सागर से मुक्ति पाने वाले व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि उसके सभी उपक्रम दुनिया के इच्छाओं और विचारों से मुक्त है ज्ञान की आग में जले हुए है।
इस निपुणता के साथ कार्य कैसे करें:-
इस निपुणता के साथ कार्य के लिए मन और इंद्रियों कि प्रकृति को समझना अतिआवश्यक है। मन कहा है? मन को हमारे इंद्रियों का घर कहा जाता है। इंद्रियां पूरे शरीर में व्याप्त है इसलिए मन सब कुछ है क्यूंकि हमारे शरीर में व्याप्त इन्द्रियों को मन संतुलित रूप प्रदान करती है। इंद्रियां बहिर्मुखी होती है। वे हमेशा इंद्रिय विषयो की ओर आकर्षित होती हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, [ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद और गंध] इत्यादि इंद्रिय वस्तुएं है और इन्हें “तनमातृक” भी कहा जाता है। ये बहिर्मुखी इंद्रियां मन के साथ हमेशा खींची जाती है। इस प्रकार विषयो के बिच रहकर उनके प्रति लगाव विकसित करते है। जैसे की बताया गया है आसक्ति इच्छा की ओर ले जाती है। अधूरी इच्छा क्रोध से क्रोध आती है, क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। मोह का परिणाम स्मृतिभ्रम, कारण की हानी और पूर्ण विनाश होता है। अतः मोह सबसे बड़ा शत्रु है।